भागवत पुराण का सामान्य परिचय
1. उद्देश्य
इसके अध्ययन से आप :
- भागवत पुराण को जान सकेंगे।
- भागवत पुराण की विषयवस्तु को जान पायेंगे।
- भागवत पुराण के वैशिष्ट्य को जान पायेंगे।
- भागवत पुराण में आए सिद्धान्तों को समझेंगे।
- भागवत पुराण का लौकिक जीवन पर क्या प्रभाव है जान पायेंगे।
2. प्रस्तावना
"पुराणं सर्वशास्त्राणां ब्राह्मण स्मृतम्" — वेदों के कठिन अर्थों को समझाने के लिए ब्रह्मा जी ने पुराणों की रचना की। पुराण वैदिक तत्त्वों को सरल भाषा में जनता तक पहुँचाने का माध्यम हैं। भारतीय संस्कृति तथा मूल स्वरूप के अध्ययन के लिए पुराणों का अध्ययन अत्यावश्यक है।
महापुराणों की संख्या अठारह है; उनमें वैष्णव, शैव और ब्राह्म पुराण शामिल हैं। वैष्णव पुराणों में श्रीमद्भागवत् पुराण सर्वाधिक प्रचलित और विशिष्ट है।
पुराण की लोकप्रियता आज के समय में बहुत ज्यादा है। इसी श्रीमद्भागवत महापुराण में पुराणों का वैशिष्ट्य बताते हुए इनको पञ्चम वेद कहा है-
"इतिहासपुराणानि पञ्चमं वेदमीश्वरः",
"इतिहासपुराणं च पञ्चमो वेद उच्यते"।
श्रीमद्भागवत पुराण को वेद पुरुष की जंघा माना गया है। सभी महापुराणों का क्रम भी श्रीमद्भागवत के १२वें स्कंध के सातवें अध्याय में बताया गया है। इस पुराण के दसवें स्कन्ध में वर्णित कृष्णलीला का प्रचार देश के साथ-साथ विदेशों में भी हुआ है। इस पुराण में ऐतिहासिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, दार्शनिक, भौगोलिक तथा आध्यात्मिक सामग्री की प्रचुरता है। इसमें भगवान विष्णु के सभी अवतारों को अच्छे ढंग से बताया गया है। 'हरिलीलामृत' के लेखक बोपदेव कहते हैं-
वेदः पुराणं काव्यं च प्रभुर्मित्रं प्रियेव च।
बोधयन्ति हि प्राहुस्त्रिवद् भागवतं पुनः"।।
अर्थात् श्रीमद्भागवत वेद भी है, पुराण भी है और काव्य भी है। इस पुराण को भगवत्स्वरूप माना गया है, पद्म पुराण के अनुसार भागवत श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है और उसके द्वादश स्कन्ध उसके अंग-प्रत्यंग हैं। श्रीमद्भागवत परमसत्य का प्रकाशक है "सत्यं परं धीमहि" यही भागवत का आदर्श वाक्य है। भागवत का सबसे पहले उपदेश भगवान नारायण से आदि गुरु ब्रह्म देव को प्राप्त हुआ। इस भागवत महापुराण का संवाद रूप में अत्यधिक प्रचलन है। इसका श्रवण श्रद्धा पूर्वक परीक्षित ने अपने अनिष्ट निवारण के लिए शुकदेव जी से किया था। राजर्षि परीक्षित ने इस भागवत महापुराण का श्रवण एक सप्ताह में किया था, किंतु उसका कारण था परीक्षित की मृत्यु की निकटता। अतः भागवत सप्ताह का श्रवण प्रचलित है। इस पुराण का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है भगवान श्री कृष्ण।
3. भागवत पुराण का सामान्य परिचय
3.1 भागवत पुराण का सामान्य परिचय
यह वैष्णवों का प्रिय, महापुराण है।
"यत्राधिक्षुत्र गायत्रीं वर्ण्यते धर्म विस्तरः।
वृत्रासुर वधोपेतं तदवै भागवतं विदुः"।।
जीवन जीने की एक अद्धभुत शैली को बताते हुए यह महापुराण वैष्णवों का मुकुटमणि बना है। भगवान् श्रीकृष्ण का शब्दमय विग्रह, आध्यात्मिक रस की अलौकिक प्याऊ, असंतोष जीवन को शान्ति प्रदान करने वाला दिव्य अमृत रस, या यों कहिये नर को नारायण बनाने वाली दिव्य चेतना है श्रीमद्भागवत महापुराण सम्प्रति उपलब्ध भागवत में १२ स्कन्धों में ३३५ अध्याय और १८ हजार श्लोक हैं जैसा कि गौरीतन्त्र में कहा गया है-
"ग्रन्थोऽष्टादश साहस्रः श्रीमद्भाग्वताभिधः । पञ्चत्रिंशत्तराध्यायत्रिशतीयुक्त ईश्वरी"।।
अन्य पुराणों के समान ही इस पुराण के रचयिता व्यास जी हैं। ऋषि शुकदेव जी, जो वेद व्यास के बेटे थे उन्होंने श्रीमद् भागवत को राजा परीक्षित को सुनाया था। राजा परीक्षित वो जिनको ऋषि श्रृंगी द्वारा 7 दिनों में तक्षक साँप द्वारा मारे जाने के लिए शाप दिया गया था, उस शाप के निवारणा के लिए यह कथा परीक्षित द्वारा सुनी गई थी। इसके १०वें स्कन्ध में कृष्ण की रास-लीला तथा क्रीडाओं का विस्तृत वर्णन है, अतः यह बहुत प्रचलित है। इसकी अनेक टीकाएँ हैं। यह सबसे अधिक प्रसिद्ध पुराण है। इसमें कृष्ण को अवतार माना गया है और उनकी लीलाओं का वर्णन है। यह प्रौढ़ और परिष्कृत शैली में लिखा गया है। बीच-बीच में गम्भीर दार्शनिक विवेचन हैं, अतः यह विद्वानों की योग्यता की कसौटी माना गया है। इसमें वैदिक और लौकिक संस्कृत का समन्वय है। इसका मुख्य वर्ण्य विषय भक्ति योग है, जिसमें कृष्ण को सभी देवों का देव या स्वयं भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में रस भाव की भक्ति का निरुपण भी किया गया है। इस पुराण के रचयिता वेद व्यास को माना जाता है। यह भक्तिशाखा का अद्वितीय ग्रंथ माना जाता है और आचार्यों ने इसकी अनेक टीकाएँ की है। कृष्ण-भक्ति का यह समुद्र है। साथ ही उच्च्च दार्शनिक विचारों की भी इसमें प्रचुरता है। भगवान् कृष्ण की प्रयसी 'राधा' का उल्लेख भागवत में नहीं मिलता। इस पुराण का पूरा नाम श्रीमद् भागवत पुराण है।
श्रीमद्भागवत पुराण की उत्पत्ति के विषय में भागवत के प्रथम स्कन्ध में बताया गया है। शुकदेव ने यह कथा परीक्षित को सुनाई थी, परन्तु प्रश्न आता है कि उन्होंने यह कथा क्यों सुनी? इससे पहले परीक्षित का इतिवृत्त जानना होगा। भागवत पुराण के अनुसार परीक्षित का इतिवृत्त है-
राजर्षि परीक्षित जब अश्वत्थामा ने पाण्डवों से अपने अनादर का बदला लेने के लिए पाण्डवों के वंश को निर्वीज करने के लिए उत्तरा पर ब्रह्मास्त्र चला दिया, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी गदा और सुदर्शनचक्र से उत्तरा के गर्भ की रक्षा की। अभिमन्युनन्दन परीक्षित ने अपनी माता उत्तरा के गर्भ में दसवें मास ही तेजोमय श्रीकृष्ण का दर्शन किया, जो अपनी गदा द्वार ब्रह्मास्त्र का शमन कर रहे थे। इस प्रकार राजा परीक्षित की गर्भ में जीवन रक्षा हुई। पाण्डवों के परलोक गमन के बाद राजा परीक्षित पृथ्वी पर शासन करने लगे। तब तक भगवान् श्रीकृष्ण दिव्यधाम सिधार चुके थे। राजा परीक्षित ने इरावती से विवाह किया, जिससे जनमेजय आदि चार पुत्र हुए। राजा परीक्षित ने अनेक अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न किये।
एक बार राजा परीक्षित शमीक ऋषि के आश्रम आये और प्यास लगने पर पानी माँगा, किन्तु समाधि स्थिति में शमीक ऋषि को उसका भान नहीं हुआ। फलस्वरूप क्रोधाविष्ट राजा ने उनके कण्ठ में सर्प डाल दिया और अपनी राजधानी चले आए। राजा की यह करतूत जानकर ऋषि पुत्र शृङ्ङ्गी ने यह शाप दे दिया कि आज से सातवें दिन राजा परीक्षित को तक्षक नाग डस (खा) लेगा। इस शाप से राजा परीक्षित जरा भी भयभीत नहीं हुए, राजा ने गंगा तट पर बैठ थे तभी उनके सामने शुकदेव आए। राजा परीक्षित ने उनके सम्मुख मरणासन्न व्यक्ति के कर्तव्य से सम्बन्धित और मनुष्य मात्र के कर्तव्य कर्म के विषय में अपनी जिज्ञासा प्रकट की और दो प्रश्न किए - १. मनुष्य का कर्तव्य क्या है? उसके जीवन का लक्ष्य क्या है? २. मरणासन्न मनुष्य का कर्तव्य क्या है? साथ ही यह भी पूछा कि मनुष्य को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। इन दो प्रश्नों से ही सम्पूर्ण भागवत का उदय हुआ है। वक्ता श्री शुकदेव का एकमात्र प्रयोजन है प्राणिमात्र के कल्याण के लिए सत्त्य का अविष्कार। श्रोता राजर्षि परीक्षित का एकमात्र प्रयोजन है उस सत्त्य की अनुभूति। परीक्षित के ब्रह्मपद प्राप्ति का यही रहस्य है। श्री शुकदेव द्वारा इनका समाधान ही भागवत है। प्रथम प्रश्न का उत्तर है- "अन्ते नारायणस्मृतिः" मृत्यु के समय श्री नारायण का स्मरण करना चाहिए, उसे मृत्यु से भयभीत नहीं होना चाहिए और अभय पद प्राप्त करना चाहिए।
इन दो प्रश्नों से ही सम्पूर्ण भागवत का उदय हुआ है। वक्ता श्री शुकदेव का एकमात्र प्रयोजन है प्राणिमात्र के कल्याण के लिए सत्त्य का अविष्कार। श्रोता राजर्षि परीक्षित का एकमात्र प्रयोजन है उस सत्त्य की अनुभूति। परीक्षित के ब्रह्मपद प्राप्ति का यही रहस्य है। "सत्यं परं धीमहि" इस आदर्श वाक्य की सार्थकता भी इसी में है।
3.2 भागवत पुराण के १२ स्कन्धों की विषयवस्तु
3.3 भागवत पुराण में आए भगवान् के विभिन्न अवतार
ये तो हम सभी को पता है कि भगवान पापियों के नाश के लिए तथा अपने भक्तों को दर्शन देने के लिए इस पृथ्वी पर बार-बार जन्म लेते हैं। उन भगवान् के अवतारों का भागवत पुराण के द्वितीय स्कन्ध के सप्तमाध्याय में संक्षिप्त वर्णन प्राप्त होता है वह इस प्रकार है १. वराह, २. सुयज्ञ, ३. कपिल, ४. दत्तात्रेय, ५. सनकादि, ६. नर-नारायण, ७. ध्रुव-नारायण, ८. राजा पृथु, ६. ऋषभदेव, १०. यज्ञपुरुष स्यग्रीव, ११. मत्स्य, १२. कच्छप, १३. नृसिंह, १४. श्रीहरि ( गजेन्द्रमोक्ष), १५. वामन, १६. हंस, १७. स्वायम्भुवमनु, १८. धन्वन्तरि १६. परशुराम, २०. दाशरथी राम, २१. श्रीकृष्ण, २२. महर्षि वेदव्यास, २३. भगवान् बुद्ध और २४. कल्कि।
वस्तुतः भगवान् श्रीकृष्ण और राम ही पूर्ण अवतारी पुरुष हैं। जिनमें अल्पशक्ति का प्रकाश होता है उन्हें अंशावतार और जिनमें पूर्णशक्ति का प्रकाश होता है उन्हें अवतारी पुरुष कहते हैं, इसमें भागवतामृत का वचन इस प्रकार है-
"शक्तेर्व्यक्तिस्तथाऽव्यक्तिस्तारतम्यस्यकारणम्।
3.4 भागवत पुराण में भगवान् विष्णु का महत्त्व
सभी पुराणों में भगवान विष्णु के माहात्म्य का वर्णन किया गया है परन्तु श्रीमद्भागवत पुराण विशेष रूप से वर्णन किया गया है। इन पुराणों में भगवान विष्णु को एक प्रमुख देवता के रूप में उल्लिखित किया गया है। इनमें वैदिक देवताओं की अपेक्षा पौराणिक विष्णु के उत्कर्ष की कथा कही गई है। भगवान विष्णु के माहात्म्य का वर्णन करने के क्रम में वैष्णव धर्म का विकास, वैष्णवी भक्ति, वैष्णव अवतार की अवधारणा पर प्रकाश डाला गया है। इस पुराण का एक पूरा स्कन्ध विष्णु के अवतार (भगवान कृष्ण) का वर्णन करता है। इस पुराण से लोक में कृष्ण भक्ति का अत्यधिक प्रचार-प्रसार हुआ है।
4. भागवत पुराण का वैशिष्ट्य
भागवत महापुराण की ऐतिहासिक विशिष्टता - श्रीमद्भागवत महापुराण १८ पुराणों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय है जिस प्रकार राम कथा के लिए रामायण प्रसिद्ध है, उसी प्रकार कृष्ण कथा के लिए श्रीमद् भागवत महापुराण सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसमें आध्यात्मिक चिंतन के अतिरिक्त ऐतिहासिक सामग्री भी प्रचुरता में प्राप्त होती है। इस पुराण के द्वितीय स्कन्ध में सृष्टिक्रम को बताया गया है जो के प्रकृति के अर्थात् इस समस्त चराचर विश्व के इतिहास को बताता है तथा अन्य स्कन्धों में भगवान विष्णु के अवतारों को बताया गया है जो की सनातन संस्कृति के इतिहास को बताता है पञ्चम स्कन्ध में प्रियव्रत आदि राजाओं का वर्णन तथा भूगोल का विशद वर्णन प्राप्त होता है। इसके सप्तम स्कन्ध में वर्ण आश्रम और वर्णाश्रम के अनुसार धर्म की व्यवस्था बताई गई है जो कि धार्मिक इतिहास को बताता है इसके नौवें में स्कन्ध में सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशी राजाओं का वर्णन तथा १६ महाजनपदों में से कई महाजनपदों का वर्णन प्राप्त होता है इसके अंतिम स्कन्ध में सभी पुराणों का विभाजन तथा कलयुग के राजाओं का वर्णन प्राप्त होता है।
भागवत का भगवत्स्वरूप समग्रऐश्वर्य, समग्रधर्म, समग्रयश, समग्रश्री, समग्रज्ञान और समग्रवैराग्य ये षड्विध 'भग' जिसमें सम्पूर्ण रूप से वास करते हैं, उसे 'भगवान्' कहते हैं। "भगवतः इदं भागवतम्" भागवत महापुराण भी भगवान् का स्वरूप और उसका वाङ्गय अवतार ही है। पद्म पुराण के अनुसार भागवत श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है और उसके द्वादश स्कन्ध उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग हैं। प्रथम और द्वितीय स्कन्ध भगवान् के दोनों चरणकमल, तृतीय और चतुर्थ स्कन्ध उनकी दोनों जंघाएँ, पञ्चम स्कन्ध नाभि, षष्ठ स्कन्ध वक्षस्थल, सप्तम स्कन्ध बाहुयुगल, नवम स्कन्ध कण्ठ, दशम स्कन्ध मुखारविन्द, एकादश स्कन्ध ललाट और द्वादश स्कन्ध मूर्धा है।
भागवत की आध्यात्मिक विशिष्टता श्रीमद्भागवतम् पुराण या कथा हिन्दुओं के सबसे प्रसिद्ध अट्ठारह पुराणों में से एक है। इसका मुख्य विषय आध्यात्मिक योग और भक्ति चेतना को जागृत करना है। इस पुराण में भगवान् श्री कृष्ण को सभी देवों में श्रेष्ठ माना गया है। इस पुराण में रस भाव की भक्ति का चित्रण बहुत ही सुन्दर तरीके से किया गया है। श्रीमद्भागवतम् पुराण के प्रत्येक श्लोक में श्रीकृष्ण के बारे में सम्पूर्ण चित्रण किया गया है इस पुराण में साधन-ज्ञान, सिद्धज्ञान, साधन-भक्ति, सिद्धा-भक्ति, मर्यादा-मार्ग, अनुग्रह-मार्ग, द्वैत, अद्वैत समन्वय के साथ प्रेरणादायी विविध उपाख्यानों का अद्भुत संग्रह है।
मानव जीवन में भागवत कथा का बड़ा ही महत्व है। कथा सुनने से मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा मन का शुद्धिकरण होता है। प्रत्येक मनुष्य को भागवत की संपूर्ण कथा का श्रवण करना चाहिए। भागवत से भक्ति एवं भक्ति से शक्ति की प्राप्ति होती है तथा जन्म जन्मांतर के सारे विकार नष्ट होते हैं। शुद्धिकरण होता है। प्रतिदिन हमें अपनी व्यस्त दिनचर्या से प्रभु भक्ति के लिए समय अवश्य निकालना चाहिए। भागवत कथा सुनने से जन्म जन्मांतर के पाप धुल जाते हैं। श्रीमद् भागवत कथा का श्रवण मनुष्य जीवन को सार्थक बनाती है। जन्म तो हर प्राणी एवं मनुष्य लेता है लेकिन उसे अपने जीवन का अर्थ बोध नहीं होता है। बाल्यावस्था से लेकर मृत्यु तक वह सांसारिक गतिविधियों में ही लिप्त होकर इस अमूल्य जीवन को नश्वर बना देता है। श्रीमद् भागवत ऐसी कथा है जो जीवन के उद्देश्य एवं दिशा को दर्शाती है। इसलिए जहां भी भागवत होती है इसे सुनने मात्र से वहां का संपूर्ण क्षेत्र दुष्ट प्रवृत्तियों से खत्म होकर सकारात्मक उर्जा से सशक्त हो जाता है। श्रीमद् भागवत साक्षात् भगवान का स्वरूप है इसीलिए श्रद्धापूर्वक इसकी पूजा-अर्चना की जाती है। इसके पठन एवं श्रवण से भोग और मोक्ष दोनों सुलभ हो जाते हैं। मन की शुद्धि के लिए इससे बड़ा कोई साधन नहीं है। सिंह की गर्जना सुनकर जैसे भेड़िए भाग जाते हैं, वैसे ही भागवत के पाठ से कलियुग के समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं। इसके श्रवण मात्र से हरि हृदय में आ विराजते हैं। भागवत में कहा गया है कि बहुत से शाख सुनने से क्या लाभ हैं? इससे तो व्यर्थ का भ्रम बढ़ता है। भोग और मुक्ति के लिए तो एकमात्र भागवत शास्त्र ही पर्याप्त है। हजारों अश्वमेध और वाजपेय यज्ञ इस कथा का अंशमात्र भी नहीं हैं। फल की दृष्टि से भागवत की समानता गंगा, गया, काशी, पुष्कर या प्रयाग कोई भी तीर्थ नहीं कर सकता। श्रीमद्भागवत महापुराण से इस लोक भक्ति साहित्य का तथा भक्ति परम्परा का प्रचार-प्रसार हुआ है। प्रसिद्ध रास पञ्चाध्यायी भी इसमें प्राप्त होती है।
भागवत पुराण में पुराण के लक्षण सभी पुराणों में भागवत पुराण एक मात्र ऐसा पुराण है जिसमें पुराण के दस लक्षणों की चर्चा हुई है। एवं विष्णु पुराण के साथ-साथ इसमें भी पुराण के पाँच लक्षणों की चर्चा आई है। यह भी श्रीमद्भागवत पुराण की अपनी विशिष्टता है। पुराण के द्विविध लक्षण प्राप्त होते हैं पञ्चविध और दशविध। पञ्चविध लक्षण इस प्रकार है "सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशमन्वन्तरी तथा। वंशानुचरितं चेति पुराणं पञ्चलक्षणम् ।। अर्थात् सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानचरित इनका समावेश पञ्चविध पुराण लक्षण में है। भागवत में दशविध पुराण लक्षण द्वितीय और द्वादश स्कन्ध में प्राप्त होता है। भागवत का स्पष्ट कथन है कि जहाँ पुराणों के पञ्चलक्षण प्राप्त होते हैं वह उपपुराण और जहाँ दशविध लक्षण प्राप्त होते हैं वह महापुराण है- 'केचित् पञ्चविधं ब्रह्मन् ! महदल्पव्यवस्थया''। पुराणों के दस लक्षण इस प्रकार हैं 'अत्र सर्गो विसर्गशश्च स्थानं पोषणमूतयः। मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः।। इस प्रकार पुराण के दस लक्षण हैं १. सर्ग, २. विसर्ग, ३. स्थान, ४. पोषण, ५. ऊति, ६. मन्वन्तर, ७. ईशानुकथा, ८. निरोध, ६. मुक्ति और १०. आश्रया वस्तुतः दशम तत्व आश्रय ही भागवत महापुराण का प्राणतत्त्व है अर्थात् भागवत का प्रतिपाद्य विषय है भगवान् श्रीकृष्ण, वही श्रीकृष्ण भागवत का प्राणभूत आश्रयतत्त्व है।
5. सारांश
पौराणिक साहित्य मानव सभ्यता का धरोहर है। इसने ज्ञान के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता में अपनी अद्वितीय भूमिका निभाई है। भारतवर्ष में इतनी विविधता होने के बावजूद भी हम लोग एक सूत्र में बंधे हैं यह पौराणिक साहित्य का ही प्रभाव है जो हमको धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से जोड़े रखा है।
इस भाग को पढ़कर हमने भागवत पुराण के विषय में तथा उसके वैशिष्ट्य को जाना। इन अठारह पुराणों में पाँचवाँ पुराण श्रीमद्भागवत पुराण है, जो महर्षि वेदव्यास की कृति है। इस भागवत पुराण के मुख्य वक्ता शुकदेव जी हैं और परीक्षित इसके उत्तम श्रोता हैं। भागवत पुराण सभी वैष्णव पुराणों में शिरोमणि है। इस कथा के श्रवण से जन्म जन्मांतर के विकार नष्ट होकर प्राणी मात्र का लौकिक एवं आध्यात्मिक विकास होता है। वर्तमान में सबसे प्रसिद्ध पुराण भागवत पुराण ही है। श्रीहरि की लीला ही भागवत का प्रतिपाद्य विषय है, अतः इस पुराण के पढ़ने से हमको भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के विषय में पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। यह सभी वैष्णवों तथा कृष्ण भक्तों के लिए निःसंदेह पूजनीय ग्रन्थ है। इसकी महिमा के विषय में स्वयं भागवत कहती है- "सर्ववेदान्तसारं हि श्रीभागवतमिष्यते। तद्रसामृततृप्तस्य नान्यत्र स्वाद्रतिः क्वचित्"।। श्रीमद्भागवत में अनेकानेक विषय बड़े ही सरल और सुगम्य रूप बताए गए हैं। इस पुराण में भक्ति योग, ज्ञान योग और कर्म योग का विवेचन किया गया है, किन्तु भक्ति योग का विवेचन विशद रूप में प्राप्त होता है। इस पुराण की विषयवस्तु तीन उद्देश्यों को बताती है- भक्ति, ज्ञान, और वैराग्य। श्रीमद्भागवत में विद्या का अक्षय भंडार है। इस पुराण में वेदों, उपनिषदों तथा दर्शन के गूढ़ एवं रहस्यमय सिद्धान्तों को सरल और बोधगम्य रूप में वर्णित किया गया है। वैष्णव सम्प्रदाय में ऐसा माना जाता है और यह बात पुराण सम्मत है कि जो भागवत पुराण का पाठ या श्रवण करता है उसका यह लोक (मृत्यु लोक) और परलोक दोनों ठीक हो जाते है। श्रीमद्भागवत के वैशिष्ट्य में हमने समझा कि इस पुराण की कथा हमको भोग से भक्ति मार्ग पर ले जाते हुए वैराग्य तक ले जाती है, अतः भागवत पुराण हमको भक्ति से जोड़ता है और मोक्ष की ओर ले जाता है। इस पुराण में भगवान की सभी लीलाओं का वर्णन किया गया है। त्रिविध ताप की निवृत्ति करना और मुक्ति प्रदान करना भागवत पुराण का फल तथा प्रयोजन है। श्रीमद्भागवत पुराण में सर्ग-विसर्गादि का भी अलौकिक वर्णन है। पद्म पुराण के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के दिव्यधाम पधारने के बाद भगवत्स्वरूप शुकदेव जी ने भाद्रपद शुक्ल नवमी कलिसंवत् युग के तीस वर्ष से कुछ अधिक बीत जाने पर भागवत कथा प्रारम्भकी। इसी भागवत महापुराण में पुराणों के दस लक्षण बताए गए हैं। यद्यपि भागवत में सर्वत्र भगवततत्त्व का ही निरूपण है, तब भी विशेष रूप से उसके सगुण साकार स्वरूप का दशम स्कन्ध में और निर्गुण निराकार स्वरूप का द्वादश स्कन्ध में निरूपण किया गया है। सभी विद्वानों की परीक्षा भागवत में ही होती है। भागवत पुराण प्रौढ़ ग्रंथ है। इसमें गौतम और कपिल मुनि को विष्णु का अवतार माना गया है।
6. सन्दर्भग्रन्थ सूची
२. संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास, उमाशंकर ऋषि, चौखम्भा भारती आकादमी, वाराणसी- २०१९।
३. पुराणविमर्शः, बलदेव उपाध्याय।
४. धर्मशास्त्र का इतिहास, पी.वी. काणे।
५. संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहासः कपिलदेव द्विवेदी।
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